लखन राम सियँ सुनि सुर बानी।
अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए।
मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥2॥
सरित समीप राखि सब लोगा।
मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई।
साथ निषादनाथु लघु भाई॥3॥
समुझि मातु करतब सकुचाहीं।
करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ।
उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥4॥
मातु मते महुँ मानि मोहि
जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं
समुझि आपनी ओर॥233॥
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी।
जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन रामहि की पनही।
राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥
जग जग भाजन चातक मीना।
नेम पेम निज निपुन नबीना॥
अस मन गुनत चले मग जाता।
सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥2॥
फेरति मनहुँ मातु कृत खोरी।
चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ।
तब पथ परत उताइल पाऊ॥3॥
भरत दसा तेहि अवसर कैसी।
जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू।
भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥4॥
लगे होन मंगल सगुन
सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु
पुनि परिनाम बिषादु॥234॥
सेवक बचन सत्य सब जाने।
आश्रम निकट जाइ निअराने॥
भरत दीख बन सैल समाजू।
मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी।
त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी।
होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥2॥
राम बास बन संपति भ्राजा।
सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू।
बिपिन सुहावन पावन देसू॥3॥
भट जम नियम सैल रजधानी।
सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ।
राम चरन आश्रित चित चाऊ॥4॥
जीति मोह महिपालु दल
सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ
सुख संपदा सुकालु॥235॥
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे।
जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना।
प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥
खगहा करि हरि बाघ बराहा।
देखि महिष बृष साजु सराहा॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा।
जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥2॥
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं।
मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन।
कूजत मंजु मराल मुदित मन॥3॥
अलिगन गावत नाचत मोरा।
जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला।
सब समाजु मुद मंगल मूला॥4॥
राम सैल सोभा निरखि
भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि
सुखी सिरानें नेमु॥236॥
तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई।
कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला।
पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा।
मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला।
अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥2॥
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी।
बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई।
रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥3॥
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए।
कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेदिका बनाई।
सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥4॥
जहाँ बैठि मुनिगन सहित
नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब
आगम निगम पुरान॥237॥
सखा बचन सुनि बिटप निहारी।
उमगे भरत बिलोचन बारी॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई।
कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥
हरषहिं निरखि राम पद अंका।
मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं।
रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥2॥
देखि भरत गति अकथ अतीवा।
प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला।
कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥3॥
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे।
सहज सनेहु सराहन लागे॥
होत न भूतल भाउ भरत को।
अचर सचर चर अचर करत को॥4॥
पेम अमिअ मंदरु बिरहु
भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित
कृपासिंधु रघुबीर॥238॥
सखा समेत मनोहर जोटा।
लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन।
सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥
करत प्रबेस मिटे दुख दावा।
जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे।
पूँछे बचन कहत अनुरागे॥2॥
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें।
तून कसें कर सरु धनु काँधें॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू।
सीय सहित राजत रघुराजू॥3॥
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा।
जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत।
जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥4॥
लसत मंजु मुनि मंडली
मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें
भगति सच्चिदानंदु॥239॥
सानुज सखा समेत मगन मन।
बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं।
भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
बचन सप्रेम लखन पहिचाने।
करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा।
उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई।
सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू।
चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥3॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा।
भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा।
कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥4॥
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी।
कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई।
मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
कहहु सुपेम प्रगट को करई।
केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा।
अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥2॥
अगम सनेह भरत रघुबर को।
जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँति।
बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥3॥
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की।
सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे।
बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥4॥
मिलि सपेम रिपुसूदनहि
केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत
लछिमन करत प्रनाम॥241॥
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई।
बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे।
अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा।
धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए।
सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं।
मनग सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता।
भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥
कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा।
प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि।
जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥
नाथ साथ मुनिनाथ के
मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब
आए बिकल बियोग॥242॥
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू।
सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला।
धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥
गुरहि देखि सानुज अनुरागे।
दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई।
प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥2॥
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू।
कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा।
जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥
रघुपति भगति सुमंगल मूला।
नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं।
बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥
जेहि लखि लखनहु तें अधिक
मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को
प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥
आरत लोग राम सबु जाना।
करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी।
तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥
सानुज मिलि पल महुँ सब काहू।
कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं।
जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥2॥
मिलि केवटहि उमगि अनुरागा।
पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं।
जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥3॥
प्रथम राम भेंटी कैकेई।
सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी।
काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥4॥
भेटीं रघुबर मातु सब
करि प्रबोधु परितोषु।
अंब ईस आधीन जगु
काहु न देइअ दोषु॥244॥
गुरतिय पद बंदे दुहु भाईं।
सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥
गंग गौरिसम सब सनमानीं।
देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥
गहि पद लगे सुमित्रा अंका।
जनु भेंटी संपति अति रंका॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता।
परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥
अति अनुराग अंब उर लाए।
नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू।
किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥
मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ।
गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू।
जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥
महिसुर मंत्री मातु गुरु
गने लोग लिए साथ।
पावन आश्रम गवनु किए
भरत लखन रघुनाथ॥245॥
सीय आइ मुनिबर पग लागी।
उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता।
मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥
बंदि बंदि पग सिय सबही के।
आसिरबचन लहे प्रिय जी के।
सासु सकल सब सीयँ निहारीं।
मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥2॥
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं।
काह कीन्ह करतार कुचालीं॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा।
सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥3॥
जनकसुता तब उर धरि धीरा।
नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई।
तेहि अवसर करुना महि छाई॥4॥
लागि लागि पग सबनि सिय
भेंटति अति अनुराग।
हृदयँ असीसहिं पेम बस
रहिअहु भरी सोहाग॥246॥
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं।
बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥
कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥