कटाक्षखेल-जगतदेश-समाजराजनीतिरिपोर्टविचारहमारा गाँव

टाइम्स में शामिल ‘दादी’ की सराहना जरूर कीजिए, आखिर उनको क्या पता था शाहीन बाग का अंजाम, वो तो देश बचाने निकली थीं!

उल्लेखनीय है कि करीब 10 महीने से चली आ रही बहस के बाद आज यह बात सब जान चुके हैं कि सीएए केवल प्रवासियों के लिए है। खासकर उन प्रवासियों के लिए जिन्हें पड़ोसी मुल्कों में उनके धर्म आदि के कारण प्रताड़ित किया गया और वह मजबूर होकर भारत में शरण लेने आए। सरकार ने संसद में इस कानून पर बार-बार समुदाय विशेष को आश्वस्त किया कि इससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

बावजूद इसके राणा अय्यूब जैसे इस्लामी बुद्धिजीवि व लिबरल गिरोह के लोग अपना प्रोपगेंडा चलाते रहे और आज भी चला ही रहे हैं। उनके इन्हीं एजेंडों ने शाहीन बाग में एक नवजात की जान ली थी, लेकिन तब गलती मानने की बजाय यह फैला दिया गया कि लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई में बच्चे को शहादत मिली। ये दादी भी उसी प्रदर्शन का चेहरा हैं।

जाहिर हैं इन्होंने अपने आप शाहीन बाग तक का रास्ता तय नहीं किया होगा। इन्हें किसी ने बकायदा बैठाकर तसल्ली से समझाया होगा और इनके भीतर डाला होगा कि देश खतरे में हैं और समुदाय के लोगों को उन जैसी बुजुर्गों की भी जरूरत है। इसलिए, खुशी की बात बस यह है कि भले ही दादी ने अपनी सर्दियाँ एक निराधार प्रदर्शन में बिताईं, लेकिन ये भी सोचिए कि उन्हें प्रदर्शन में बैठते हुए यही लग रहा था कि वह देश के बच्चों को बचाने निकली हैं उसके संविधान को बचाने निकली हैं।

शाहीन बाग में उनकी भूमिका की सराहना होनी चाहिए या नहीं? ये व्यापक बहस है। मगर, उनकी मंशा (देश को बचाने की) यदि वही थी जो उन्होंने अय्यूब को बताई तो वह और उनके जैसी ‘अंजान महिलाएँ’ वाकई तारीफ के लायक है कि देश को खतरे में देखकर घर से निकल पड़ीं।

दादी बिलकिस पर बात करते हुए आज हम उन रिपोर्ट का जिक्र नहीं कर रहे, जिन्होंने दावा किया कि शाहीन बाग में बैठने के लिए महिलाओं को पैसे और बिरयानी दी गई। हम इस पर भी चर्चा नहीं करेंगे कि उन आयोजनों के लिए फंड को लेकर कौन-कौन से संगठनों के नाम सामने आए और उससे पहले उनकी संलिप्ता किन देशविरोधी कार्यों में पाई जा चुकी थी। हम दादी बिलकिस पर लिखते हुए उन भड़काऊ भाषणों को भी कुछ समय के लिए दरकिनार कर रहे हैं जिन्होंने इन प्रदर्शनों में देश को तोड़ने की बात की।

मगर, इस बीच एक बिंदु पर विचार करने को जरूर कह रहे हैं कि आखिर सोचिए, 82 वर्षीय बिलकिस और उनकी जैसी तमाम महिलाओं को कहाँ से पता होगा कि शाहीन बाग का चेहरा आने वाले समय में इतना भयंकर होने वाला है कि वह कई मासूमों की जान ले लेगा। उन्हें क्या मालूम था सफूरा जरगर, खालिद सैफी, उमर खालिद, ताहिर हुसैन जैसे तमाम पढ़े लिखे, समाज के ‘प्रतिष्ठित’ लोगों ने उन्हें और उनकी जैसी वृद्धाओं को कड़ाके की ठंड में क्यों बिठाया हुआ है। उन्हें तो जो बताया गया वह उसी आधार पर देश के बच्चों को बचाने निकलीं वो भी अपनी उम्र को ताक पर रखकर।

आज राणा अय्यूब दादी को एक सशक्त चेहरा मानती हैं। उनके टाइम्स में शामिल होने पर गर्व करती हैं। हमें भी इससे कोई आपत्ति नहीं है। बस विचार करने वाली बात है कि जिस टाइम्स ने शाहीन बाग में बैठी बिलकिस को लेकर इतनी सकारात्मक टिप्पणी की है, उसी टाइम्स ने अपनी सूची में नरेंद्र मोदी का नाम शामिल करते हुए यह लिखा है कि उनके पीएम बन जाने से देश की स्थिरता और समसरता संदेह के घेरे में आ गई है।

पीएम मोदी को लेकर एक तरफ जहाँ टाइम्स ने ये दावा किया है कि उनके शासन से यह ज्ञात होता है कि उनके लिए हिंदुओं के सिवा कोई महत्त्व नहीं रखता। वहीं, दादी बिलकिस को लेकर कहा जाता है कि उन्होंने देश भर में शाहीन बाग जैसे ‘शांतिपूर्ण’ आंदोलनों को प्रेरित किया। अब एक तरफ मोदी सरकार पर ‘हिंदुत्व की राजनीति’ करने का आरोप और दूसरी ओर शाहीन बाग-‘एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन’!

दोनों लेखों में ऐसे विशेषणों का इस्तेमाल देखकर खुद अंदाजा लगाइए कि क्या लिबरल मीडिया खुद नहीं चाहता कि उनका पाखंड दुनिया के सामने उजागर हो। क्या उसे नहीं लगता कि एक ओर हिंदुओं का नाम लेकर मोदी सरकार को संशय के घेरे में रखना और दूसरी ओर समुदाय विशेष के आंदोलन को शांतिपूर्ण कहना उनकी दोहरे चेहरे का प्रमाण है? आखिर कितना उचित है उस आंदोलन को बार बार ‘शांतिपूर्ण’ कह देना जिसका अंतिम व भयावह चेहरा पहले ही पूरी दुनिया ने गत फरवरी में देख लिया है।

बिलकिस को आज चेहरा बनाकर टाइम्स ने भले ही शाहीन बाग की सभी प्रदर्शनकारियों को सम्मान दिया हो, पूरी बहस को दूसरी दिशा में मोड़ने की कोशिश की हो, सवाल उठाने वालों के मुँह पर तमांचा जैसा बताया हो। मगर, इस भ्रम में यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि उनकी जैसी वृद्धाओं की आड़ में ऐसी ‘दंगाई’ महिलाएँ भी उस प्रदर्शन का हिस्सा बनीं थी, जिन्होंने पहले शाहीन बाग में अपनी उपस्थित दर्ज करवाई। फिर गाड़ियों में भरकर जाफराबाद पहुँची और वहाँ अपना हिंसात्मक चेहरा दिखाया।

दिल्ली दंगों पर आधारित मोनिका अरोड़ा की किताब बताती है कि उस दिन ऐसी ही प्रदर्शनकारी महिलाओं की भीड़ ने बुर्के के अंदर तमाम ईंट पत्थर छिपाए थे और ‘शांतिपूर्ण’ प्रदर्शन को अंजाम तक पहुँचाने के लिए कॉन्सटेबल रतन लाल को मौत के घाट उतार दिया था व अन्य पुलिस अधिकारियों पर जानलेवा हमला बोलकर दंगे भड़काए थे। दिल्ली पुलिस की चार्जशीट कहती है कि इन महिलाओं को जहाँगीरपुरी से इकट्ठा करके लाया गया था। ये संख्या में 250-300 थीं।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button