उत्तर प्रदेशराजनीति

सभी दलों से मिलकर क्या वही पुरानी सियासी चाल चल रहे हैं ओमप्रकाश राजभर?

लखनऊ:पहले भाजपा के साथ, फिर उसके खिलाफ और अब दोबारा उससे होती नजदीकी. पिछले पांच सालों में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) के ओमप्रकाश राजभर (Om Prakash Rajbhar) के कई चेहरे दिखाई दिये हैं. भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह (UP BJP President Swatantra Dev Singh) से मिलने के बाद तो लोग ओमप्रकाश राजभर की विश्वसनीयता तक पर सवाल उठा रहे हैं.

दरअसल, इससे पहले ओमप्रकाश राजभर सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मिल चुके हैं. कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू से मिल चुके हैं. बस बीएसपी सुप्रीमो मायावती से उनका मिलना बाकी है. जानकारों का कहना है कि ऐसे में उनकी बातों का कौन एतबार करेगा? क्या ये नहीं समझा जाए कि वे अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते हैं. ऐसे लीडर का जनता भरोसा नहीं करती. तो क्या सही में ऐसा है? क्या 2022 के चुनाव में उनका वोटबैंक उनके साथ खड़ा नहीं रहेगा?

यह तो चुनाव बाद पता चलेगा, लेकिन यह बात सोलह आने सच है कि ओपी राजभर जो कर रहे हैं, वह कोई नया और अनोखा काम नहीं है. ऐसे ही काम कई छोटी पार्टियां पहले कर चुकी हैं. कौन सी ऐसी पार्टी है, जो यह दावा कर सकती है कि उसने सिर्फ विचारधारा के आधार पर ही गठबंधन किया. यूपी का सियासी इतिहास गवाह है कि सभी ने राजनीतिक फायदे के लिए गठबंधन किए हैं. तो क्या सभी पार्टियों से जनता का भरोसा उठ गया? ऐसे में ओपी राजभर को लेकर आशंका क्यों पैदा हो रही है?

वैसे इन मुलाकाताें को लेकर ओम प्रकाश राजभर खुद व्यक्तिगत भेंट कहते हैं, पर साथ ही अपने अंदाज में कह भी देते हैं कि वह आंक रहे हैं कि दूसरे क्या कर रहे हैं?

आइये जानते हैं कि किस तरह विचारधारा के उलट राजनीतिक गठबंधन होते रहे हैं.

सबसे पहले बात सत्ताधारी भाजपा की
भाजपा ने न सिर्फ यूपी बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी पार्टियों से गठबंधन किया है, जिनसे उसका लंबा वैचारिक मतभेद रहा है. यूपी की बात करें तो बसपा से भाजपा की कोई वैचारिक समानता नहीं रही है लेकिन, भाजपा ही वो पार्टी है, जिसने पहली बार मायावती को मुख्यमंत्री पद पर बिठाया था. 1995 में जब सपा-बसपा का गठबंधन टूट गया था, तब भाजपा ने ही समर्थन देकर मायावती की सरकार बनवाई थी. इसके अलावा जम्मू कश्मीर में तो भाजपा ने पीडीपी (पीपुल्स डेमोक्रेडिक पार्टी ) से गठबंधन करके सभी को चौंका ही दिया था. दोनों की विचारधाराओं में कोई मेल नहीं था. बंगाल का उदाहरण तो हाल का ही है. बंगाल में जिस ममता सरकार को भाजपा ने उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठाया था उसी तृणमूल कांग्रेस के साथ भाजपा केन्द्र में सरकार चला चुकी है. ममता बनर्जी रेल मंत्री थीं.

समाजवादी पार्टी
मुलायम सिंह यादव को राजनीतिक पहलवान कहा जाता है. उन्होंने ये ताकत यूं ही हासिल नहीं की है बल्कि कई दलों की बैसाखी भी उसमें लगी है. 1993 में सपा और बसपा साथ चुनाव लड़े. फिर जुदा हो गये. एक दूसरे के खिलाफ 15 सालों तक जूझते रहे. फिर 2019 में गलबहियां कर लिये. और तो और हैरत तो तब हुई जब मुलायम सिंह के साथ कल्याण सिंह मंच पर दिखे. आगरा में हुए सपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में कल्याण सिंह मुलायम सिंह के साथ मंच पर बैठे थे. तब वे भाजपा में नहीं थे. बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर दोनों की सोच एक दूसरे के बिल्कुल उलट थी लेकिन, राजनीतिक जरूरत ने साथ तो कर ही दिया.

कांग्रेस से भी सपा के रिश्ते समय समय पर मीठे और तल्ख होते रहते हैं. पहले केन्द्र की यूपीए सरकार को समर्थन दिया फिर 2017 में यूपी का चुनाव साथ लड़े. अब कांग्रेस के पास भी फटकते नहीं दिखना चाहते.

बहुजन समाज पार्टी
बहुजन समाज पार्टी का भाजपा, सपा और कांग्रेस तीनों ही दलों से मिलाप हो चुका है. 1993 में सपा के साथ य़ूपी में सरकार बनी. जब ये रिश्ता टूटा तो 1995 में भाजपा के साथ सरकार बनी. जब ये भी रिश्ता टूटा तो कांग्रेस के साथ मिलकर 1996 का चुनाव लड़ा. जब सभी छूट गये तो फिर से 2019 में सपा के साथ चुनाव लड़ा. भाजपा की सहयोगी रही अकाली दल के साथ अब बसपा पंजाब में चुनाव लड़ रही है. जहां वो भाजपा और कांग्रेस दोनों के खिलाफ खड़ी है.

कांग्रेस
वैसे तो 1985 के बाद से ही कांग्रेस यूपी में बेदम है लेकिन, कोई ऐसी पार्टी नहीं बची, जिससे कांग्रेस ने राजनीतिक फायदे के लिए गठजोड़ न किया हो. 1996 में बसपा के साथ चुनाव लड़े तो 2017 में सपा के साथ. यूपी से बाहर निकलिये तो और भी ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे. कांग्रेस केरल में लेफ्ट के खिलाफ लड़ रही है लेकिन, ममता बनर्जी को हराने के लिए बंगाल चुनाव में लेफ्ट के साथ खड़ी थी.

तो ऐसे बेमेल गठबंधन को क्या कहेंगे? क्या ये मौकापरस्ती नहीं है. यदि सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर भी इसी रास्ते जा रहे हैं तो उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं? असल में चुनाव में राजनीतिक पार्टियों का एक ही धर्म बन जाता है और वह है जीत. इसके लिए जो भी करना होता है, उसे किया जाता रहा है. इसे सही या गलत के तराजू पर तौले भी तो कौन.

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