पुणे के डॉक्टरों ने ब्लड ग्रुप न मिल पाने और अनेक आर्टरी के बाद भी किडनी का सफल प्रत्यारोपण किया
● डोनर (एबी+) और मरीज (ए+) के बीच एबीओ असंगति से शरीर में किडनी के अस्वीकार होने का जोखिम बड़ा था और इसके लिए विशेष प्रोटोकॉल की जरूरत थी।
पुणे : मणिपाल हॉस्पिटल, बाणेर में अलग-अलग ब्लड ग्रुप और कई आर्टरी की चुनौतियों के बाद भी पुणे की एक 40 साल की महिला का सफल इलाज किया गया। इस महिला की किडनी फेल हो चुकी थी।
आरती मशाले एक गृहणी हैं, जिन्हें साल 2015 से ही स्वास्थ्य की गंभीर समस्या थी। निदान में उन्हें एसएलई (सिस्टेमिक ल्युपस एरिथेमेटोसस) और ल्युपस नेफ्रिटिस का विकार सामने आया, जो एक गंभीर ऑटोइम्यून बीमारी है। पाँच अलग-अलग प्रकार की दवाईयाँ लेने के बाद भी उनका हाईपरटेंशन अनियंत्रित बना हुआ था। 2020 में उनका स्वास्थ्य तब और ज्यादा खराब हो गया, जब उन्हें डायबिटीज़ के साथ हर्पीज़ ज़ोस्टर भी शुरू हो गया। अप्रैल, 2021 आते-आते उनमें किडनी फेल होने के शुरुआती लक्षण दिखाई देने लगे, जो तेजी से बढ़ते चले गए, और 2023 में उन्हें डायलिसिस पर आना पड़ा। आरती की हालत बिगड़ती चली जा रही थी, इसलिए उन्हें फौरन किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत थी। उनके पति, राहुल मशाले (43) ने उन्हें अपनी एक किडनी देने का निर्णय लिया। लेकिन यह ट्रांसप्लांट बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि उनमें एबीओ असंगति (ब्लड ग्रुप मिसमैच) थी। राहुल का ब्लड एबी+ था जबकि आरती का ब्लड ए+ था। आगे परीक्षण करने पर एक और समस्या का पता चला कि राहुल में तीन रीनल आर्टरी थीं। यह एक दुर्लभ शारीरिक संरचना होती है, जो केवल 10 प्रतिशत आबादी को होती है। डॉ. तरुण जेलोका और डॉ. आनंद धारस्कर ने अपनी टीम के साथ इन सभी चुनौतियों को पार करते हुए 18 जुलाई, 2024 को उनका सफल किडनी प्रत्यारोपण कर दिया।
इस मामले में डॉ. आनंद धारस्कर, कंसल्टैंट यूरोलॉजी ने कहा, ‘‘यह हमारे लिए एक बहुत चुनौतीपूर्ण मामला था। यह ट्रांसप्लांट बहुत मुश्किल था क्योंकि डोनर में तीन रीनल आर्टरी थीं, जबकि मरीज में केवल एक। डोनर की तीन रीनल आर्टरी को सिलना काफी मुश्किल था, इसलिए हमने किडनी निकालने के लिए लैपरोस्कोपिक सर्जरी की, जो कम इन्वेज़िव होती है, तेजी से ठीक हो जाती है, और डोनर के शरीर पर कम निशान छोड़ती है। फिर मरीज के शरीर में केवल एक आर्टरी होने के कारण किडनी का प्रत्यारोपण करना भी उतना ही चुनौतीपूर्ण था, जिसके लिए सटीक वैस्कुलर रिकंस्ट्रक्शन की जरूरत थी, ताकि खून का प्रवाह बना रहे।’’
ब्लड ग्रुप न मिलने की चुनौती के बारे में डॉ. तरुण जेलोका, HOD एवं कंसल्टैंट नेफ्रोलॉजी एंड ट्रांसप्लांट ने कहा, ‘‘हमने ब्लड ग्रुप न मिलने के मामले में विशेष प्रोटोकॉल के साथ ट्रांसप्लांट किया। रिजेक्शन का खतरा कम करने के लिए हमने मरीज को ट्रांसप्लांट से दो हफ्ते पहले ही मोनोक्लोनल एंटीबॉडी मेडिकेशन देना शुरू किया, जिसके बाद एक सप्ताह पहले अतिरिक्त दवाईयाँ दीं। हमने खून से नुकसानदायक एंटीबॉडी को निकालने के लिए प्लाज़्मा एक्सचेंज की प्रक्रिया भी की, और उन्हें सुरक्षित स्तर तक पहुँचाया। खतरा काफी ज्यादा होने के बाद भी यह ट्रांसप्लांट सफल हुआ, और मैचिंग वाले ट्रांसप्लांट की तरह ही रहा। दो दिनों के अंदर मरीज की किडनी ठीक से काम करने लगी, और वो बिना किसी जटिलता के घर जाने में समर्थ हो गईं।’’
डोनर को 7 दिन में अस्पताल से छुट्टी दे दी गई, जबकि मरीज को सर्जरी के 9 दिन बाद अस्पताल से छुट्टी दी गई। दोनों को पुनः स्वस्थ होने में उतना ही समय लगेगा, जितना समय ब्लड ग्रुप मैच हो जाने पर आम किडनी ट्रांसप्लांट में लगता है, यानी डोनर के लिए 2 से 4 हफ्ते और मरीज के लिए 6 से 12 हफ्ते। डोनर और मरीज, दोनों अब सामान्य जीवन जी सकते हैं, पर मरीज को ट्रांसप्लांट की दवाईयाँ आजीवन लेनी पड़ेंगी।
ट्रांसप्लांट करने वाली टीम में डॉ. तरुण जेलोका, डॉ. आनंद धारस्कर, डॉ. सौरभ खिस्ते, डॉ. श्रीरंग रानाडे, डॉ. नीलेश वरवंतकर , डॉ. रंजीत महेशगौरी शामिल थे। एनेस्थेसिया सपोर्ट डॉ. आशीष पाठक की अध्यक्षता वाली टीम ने दी।
2022 में सूचित आँकड़ों के मुताबकि भारत में 71 प्रतिशत डोनर्स महिलाएं हैं। पतियों में किडनी ट्रांसप्लांट होने पर डोनर्स में 90 प्रतिशत पत्नियाँ होती हैं। पुरुषों को परिवार का पेट पालने वाला मुखिया माना जाता है, इसलिए कोशिश रहती है कि वो डोनर्स न बनें। हालाँकि यह जानना आवश्यक है कि किडनी दान करने से स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर नहीं होता है और यह मामला पुरुष डोनर्स के लिए एक मिसाल बनना चाहिए।