आज की आवश्यकता मोटा अनाज
एक समय था जब सांवा,कोदो, मड़ुआ,जौ,जई , मकुनी,बाजरा इत्यादि अनाज ही खाए जाते थे।
बुजुर्ग कहते थे कि “मोटा मेही खाओ ,डॉक्टर दूर भगाओ ” हमारे बुजुर्ग यही खाते थे और निरोगित शरीर सहित सौ साल तक जीते थे।
अब जैसे जैसे खान पान बदला लोगों के शरीर को मानो घुन लग गया हो ,तमाम बीमारियाँ जकड़ रहीं हैं आयु आधी होती जा रही है। बुढ़ाकर अपनी आयु पूरी करके तो किसी की मृत्यु ही नहीं होती है बल्कि हार्ट.अटैक, कैंसर, ब्रेन हैमरेज, सुगर जैसी बीमारियों से अकाल मृत्यु हो रही है।
पहले हम लोगों के घर पर बारिश के समय में जब बरसीम ,चरी,बाजरा जैसे हरे चारे खत्म हो जाते थे उस समय पशुओं के लिए सांवा बोया जाता था। जो पशुओं का हरा चारा बनता था और जब उसमें बालियां लगती थीं तब पक्षियों को भोजन भी मिल जाता था।
मां कुछ सांवा बचा लेती थी ताकि अगले वर्ष बीज के काम आए और कभी कभी जब ज्यादा बीज से अधिक हो जाता था तब उसका चावल बनाती थी। कच्चे चावल को दूध में भिगोकर खाते थे बहुत मीठा और स्वादिष्ट लगता था।
मेरी माँ बताती थी कि कोदो की दो प्रजाति होती थी एक अच्छी होती थी और एक में नशा होता था ।
मड़ुआ जिसे अब सब रागी कहते हैं। इसकी रोटी बनती थी। पहाड़ो में अब भी इसकी रोटी खाई जाती है ,वहां इसे झंगोरा कहते हैं। गेहूं आटे संग मिलाकर बनाते हैं तो उसे राली रोटी कहते हैं। जिस प्रकार पहाड़ो में मड़ुआ की रोटी खाई जाती है इस तरह पंजाब में मक्की की रोटी खाई जाती है तो हरियाणा में बाजरे की रोटी खाई जाती है और भी क्षेत्रों में हम लोगों के उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश बिहार में भी कमोबेश यह सब खाया जाता है।
मड़ुआ का हमने तो बचपन में सिर्फ लपसी खाई थी जो बहुत स्वादिष्ट होती है।
अब जब सबने नए अनाज, हाईब्रिड अनाज खा कर अपना नुकसान देख लिया तो फिर से वापस मोटे अनाज, जैविक सब्जी की तरफ लौटने लगे हैं।
जो जौ के नाम पर नाक सिकोड़ते थे अब ओटस खाकर आधुनिक बनते हैं। मड़ुआ के काले रंग से दूर भागने वाले शौक से रागी खाते हैं।
आज भी अनाज वही हैं बस नाम अँग्रेजी हो गया है और प्रयोग आधुनिक हो गया है।
ठाकुर नरेंद्र सिंह तंवरघार कौथरकला