रीवा

विन्ध्य में केसरिया वस्त्र पहनकर पूर्वजों का किया जाता है तर्पण

विन्ध्य में केसरिया वस्त्र पहनकर पूर्वजों का किया जाता है तर्पण

पूर्वजों की आत्मशांति के लिए केसरिया वस्त्र पहनकर करते हैं पिंडदान

 

विशाल समाचार संवाददाता रीवा : भारतीय परंपरा पुनर्जन्म पर विश्वास करती है। यह माना जाता है कि मृत्यु के बाद देह का बंधन छूट जाता है। आत्मा कुछ वर्षों तक पितरों के रूप में पितृलोक में निवास करती है। अश्विन माह की प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पूर्वज भू लोक में निवास और विचरण करते हैं। इस अवधि में पितरों का पूजन करके उन्हें जल अर्पित किया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा हम अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्ति पाते हैं। इसी अवधि में विन्ध्य के अधिकतर निवासी केसरिया वस्त्र पहनकर गया जी में पितरों का अंतिम रूप से श्राद्ध और तर्पण करते हैं। गया में पिता, चाचा, दादा, परदादा आदि का पिंडदान किया जाता है। माता, दादी, परदादी आदि का पिंडदान बद्रीनारायण धाम में ब्रम्ह कपाल में होता है। इसके लिए पितृपक्ष की बाध्यता नहीं है।

 

भारतीय परंपरा में जीवन और मृत्यु के रहस्यों को धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में वर्णित किया गया है। लेकिन सभी मान्यताओं में इस बात स्पष्ट उल्लेख है कि अपने पूर्वजन्म के कर्मों और वर्तमान जन्म के कर्मों के आधार पर हमारा अगला जन्म निर्धारित होता है। सत्कर्मों और ईश्वर की भक्ति से जब हम कर्म बंधन से मुक्त हो जाते हैं तो मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष को जीवन का प्रमुख उद्देश्य भी बताया गया है। मृत्यु और अगला जन्म होने के बीच का समय जीवात्मा पितर के रूप में बिताती है। उसे मुक्त करने के लिए पितृपक्ष में जीवात्मा के वंशज गया जी जाकर पिंडदान करते हैं। प्रथम पिंडदान पुनपुन नदी के किनारे किया जाता है। इसके बाद विष्णुपद मंदिर के सामने फालगु नदी पर पिंडदान होता है। इसके बाद सूर्यकुंड में पिंडदान किया जाता है। इन सभी स्थानों में जौ के पिंड से पिंडदान होता है। इसमें तिल, शहद, घी आदि शामिल होते हैं। इनके 17 छोटे-छोटे पिंड बनाकर इनकी विधिवत पूजा की जाती है। अपने पूर्वजों का नाम लेकर उनका तर्पण किया जाता है। इसके बाद सीता कुंड में रेत के बने पिंड से पिंडदान होता है। काकवातीय और प्रेतशिला में भी पिंडदान किया जाता है। पूर्वजों के अंतिम संस्कार स्थल से लाई गई मिट्टी प्रेतशिला में ही छोड़ दी जाती है। अंतिम पिंडदान ब्रम्ह सरोवर में किया जाता है। यहाँ पर खोवे (मावा) से पिंडदान किया जाता है। इसके बाद पिंडदान करने वाले ब्रम्ह सरोवर में स्नान करके केसरिया वस्त्रों का वहीं पर त्याग कर देते हैं। इसके साथ ही विन्ध्यवासियों द्वारा परंपरागत रूप से श्राद्ध पक्ष में किए जाने वाले पिंडदान की प्रक्रिया पूरी होती है। गया जी से वापस आने के बाद विधिपूर्वक हवन करके ब्राम्हणों तथा परिवारजनों को श्रद्धापूर्वक भोजन कराया जाता है। पूर्वजों की मुक्ति की प्रक्रिया इसके साथ ही पूर्ण होती है।

 

विन्ध्य के अधिकतर निवासी अपने घर से केसरिया वस्त्र पहनकर गया जी के लिए प्रस्थान करते हैं। परिवार के अंतिम संस्कार स्थल पर जाकर पूर्वजों को थोड़ी सी मिट्टी लेकर गया जी चलने के लिए आवाहित किया जाता है। परिवारजन पुष्पमालाओं तथा शंख-घरियाल के साथ पितरों को गया जी के लिए विदा करते हैं। केसरिया वस्त्र त्याग का प्रतीक है। हम अपने पूर्वजों का पिंडदान और तर्पण करके उनका मृत्युलोक और पितृलोक से त्याग करते हैं। संभवत: इसीलिए विन्ध्यवासी केसरिया वस्त्र पहनकर गया जी जाते हैं। पिंडदान की प्रक्रिया पूरी होने के बाद केसरिया वस्त्रों का भी ब्रम्ह सरोवर के तट पर छोड़ दिया जाता है। शरीर का त्याग करने के बाद आत्मा कहाँ जाती है, इस संबंध में पूरे विश्वास के साथ कुछ भी कहना मुश्किल है। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार पितृपक्ष के 15 दिवस ऐसे होते हैं जब हर व्यक्ति अपने पूर्वजों को याद करता है। उनकी स्मृति में दान-पुण्य करता है। ब्राम्हणों तथा गरीबों को भोजन कराता है। किसी न किसी रूप में पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव सबके मन में होता है। यही श्रद्धा श्राद्ध पक्ष का मूलतत्व है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button