*कहते हैं परिवर्तन प्रकृति का नियम है.. पर जब परिवर्तन रिश्तो में आता है.. तो पीर देता है.. थोड़ी बहुत ही नहीं गंभीर देता है.. आज के सामाजिक परिवेश को अपनी क़लम की नोक पर रख रहा हूं मैं आज..!*
*आज बबूल से लगते हैं वो सब जो कभी चंदन थे..!*
*कंटीले वन से हो गए हैं वो अब जो कभी उपवन थे..!*
*सारे के सारे घर आज तो मकान में तब्दील हो गए..!*
*बड़े बुजुर्ग विहिन लगते हैं वो जो गुलज़ार आंगन थे..!*
*सुकून की तलाश में दर्द तमाम खरीद रहा है आदमी..!*
*कच्चे धागे से हो गए सब के सब जो मजबूत बंधन थे..!*
*मसीहा ही जब मरदूद निकल आएं फ़िर कोई क्या करें..!*
*संकट में डालने लगे हैं अब जो दिखते संकट मोचन थे..!*
*दिलों पर जब गर्द जमती है तो लाइलाज़ मर्ज देती हैं..!*
*जीवन में वही ज़हर घोलते जो आए बनकर जीवन थे..!*
*मरदूद=नीच*
अपली विश्वासू
लेखिका, सुधा भदौरिया
विशाल समाचार
ग्वालियर मध्यप्रदेश