असफलता, निराशा और खुदकुशी… भविष्य की चाह पर भारी पड़ते परीक्षा के नतीजे, क्या टॉप ही है सफलता का पैमाना?
आंध्र प्रदेश में इंटर का रिजल्ट आने के 48 घंटों के भीतर 9 बच्चों ने आत्महत्या कर ली. उनके साथ ही दो और ने भी प्रयास किया, लेकिन अभी वे बचा लिए गए हैं. यह खबर अब आए दिन की हो गई है. कोटा की कोचिंग फैक्टरियों से लेकर सीबीएसई की परीक्षा तक, बच्चे लगातार जिंदगी का दामन छोड़ रहे हैं. उनके सपने इतने भारी हो रहे हैं कि जिंदगी की गठरी ही छूट जा रही है. पैरेंट्स की काउंसिलिंग जरूरी है या बच्चों की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति को समझना जरूरी है, या दोनों के बीच एक संतुलन कायम रखने से ही बात बनेगी, ये अब एक अहम सवाल है.
बच्चों की मानसिक प्रवृत्ति को समझें
पहली बात तो यह है कि हम गौर करें कि बच्चों को पढ़ाई के बारे में बताना जरूरी है, बताना चाहिए, लेकिन पढ़ाई को इतना प्रतियोगी, इतना कांपिटिटिव बना देना ठीक नहीं है. पैरेंट्स का जो ये प्रेशर रहता है, बच्चों के ऊपर- कि, हमारी तो नाक कट जाएगी, इतने नंबर नहीं आए तो हम तो कहीं मुंह नहीं दिखा पाएंगे वगैरह- वो बहुत गलत है. उससे बच्चे धीरे-धीरे समझने लगते हैं कि गलती उन्हीं की है, क्योंकि उनका रिजल्ट नहीं आया. तो, इस तरह का प्रेशर नहीं होना चाहिए. यह एक बात हुई. हालांकि, जो मुख्य मुद्दा है, असल बात है, जो हमारे देश में अभी तक वह बात समझी नहीं गईं. वह बात है मानसिक रोगों और मानसिक प्रवृत्तियों या टेंडेंसी को नहीं समझने की. अगर कोई बच्चा बहुत संवेदनशील है और आप बिना किसी काउंसिलर की सलाह के वह सब्जेक्ट उसे दिलवा देते हैं, जो उसको पसंद नहीं है और फिर आप दबाव बनाते हैं, तो वह गलत होगा. दबाव, जैसे कि मैंने ये चुन दिया है, तुम्हारे लिए तो तुम पढ़ो या मैंने भी पढ़ा था तो तुम भी पढ़ो या मैंने ये सपना देखा है तुम्हारे लिए- अमूमन इस तरह के दबाव पैरेंट्स देते हैं. या फिर, बच्चे को उसके भविष्य का हवाला देकर असुरक्षित करना कि अगर तुमने ठीक से नहीं पढ़ा तो नाक कट जाएगी, तुम किसी काम के नहीं रहोगे- ये बहुत गलत है। फिर, बच्चा घर लौटने के लायक नहीं रहता है