दिल्लीराजनीति

इंदिरा, सुषमा, माया, ममता…. देवी को पूजते हैं, पर असली ‘देवियों’ पर सच क्या है?

नई दिल्ली: तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने हाल में काली मां की पूजा को लेकर कुछ ऐसा कहा जिस पर बवाल मच गया। उनसे ‘काली’ शीर्षक वाली डॉक्यूमेंट्री को लेकर सवाल किया गया था, जिसके विरोध में देशभर में प्रदर्शन होने लगे। जैसे ही मोइत्रा (Mahua Moitra) की टिप्पणी वायरल हुई, सड़क पर विरोध देखने को मिला। मध्य प्रदेश के कई शहरों और दिल्ली में टीएमसी नेता के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। इस हालात का जिक्र करते हुए वरिष्ठ पत्रकार सागरिका घोष ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख लिखकर कटाक्ष किया है कि हम शक्तिशाली देवियों को तो पूजते हैं लेकिन हमारी महिला नेताओं को जबर्दस्त विरोध और शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है।

दरअसल, तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सदस्य महुआ मोइत्रा ने कहा था कि जिस तरह हर व्यक्ति को अपने तरीके से देवी-देवताओं की पूजा करने का अधिकार है, उसी तरह उन्हें देवी काली के मांसाहारी और मदिरा स्वीकार करने वाली देवी के रूप में कल्पना करने का पूरा अधिकार है। सागरिका लिखती हैं कि आज की राजनीति में आक्रोशित जनभावनाओं का ज्वार इतना है कि मोइत्रा की अपनी पार्टी ने उनके साथ खड़े होने से इनकार कर दिया। जबकि पहले अनुष्ठानों के बारे में टिप्पणियों को अनदेखा कर दिया जाता था। आज आलम यह है कि राजनीतिक पटल पर धर्म का मुद्दा सबसे आगे रहता है और ऐसे में कोई भी टिप्पणी विरोध को सुलगा सकती है

जिस समय महुआ मोइत्रा को घेरा जा रहा था, टीएमसी का टॉप लीडरशिप भी चर्चा में था। मोइत्रा के बयान से दूरी बनाते हुए, TMC का प्रतिनिधिमंडल बंगाल के गवर्नर से मिला और सीएम ममता बनर्जी पर बंगाल भाजपा नेता दिलीप घोष की टिप्पणियों को लेकर विरोध दर्ज कराया गया। सागरिका कहती हैं कि ममता, मोइत्रा और देवी काली के इर्दगिर्द पैदा हुए विवादों के मद्देनजर हम एक सवाल पूछ सकते हैं कि वैसे तो हम देवियों की पूजा करते हैं और उनकी ‘सुरक्षा’ के लिए एफआईआर दर्ज की जाती है, लेकिन क्या हमने दैनिक जीवन में सच मायने में उस शक्ति सिद्धांत को अपनाया है, जो काली का प्रतीक है?

वह कहती हैं कि भारत में जो महिला राजनेता शीर्ष पर पहुंचने में कामयाब हो जाती है उन्हें पितृसत्तात्मक व्यवस्था से भयंकर विरोध और द्वेष का सामना करना पड़ता है। यह व्यवस्था उन्हें बड़े खतरे के तौर पर देखती है। वास्तव में, सार्वजनिक जीवन में रहने वाली महिलाएं कभी-कभी ‘काली अवतार’ धारण कर लेती हैं। इस भयानक काली अवतार को विरोधियों और पार्टी के सहयोगियों के बीच भय पैदा करने के लिए एक रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किया गया। महिला राजनेता का व्यक्तित्व जाने-अनजाने में एक दबंग महिला की तरह बन जाता है- वह इंदिरा गांधी रही हों, जयललिता, मायावती या ममता बनर्जी।

इंदिरा गांधी
हां में हां मिलाने के रवैये से उलट ऐसी महिलाएं, जो राजनीतिक जगत में सत्ता और शक्ति हासिल करती हैं उन्हें लगातार टारगेट किया जाता है। इंदिरा एक गंभीर और कठोर फैसले लेने वाली राजनेता थीं जिन्होंने पार्टी पर अधिकार के लिए कांग्रेस को तोड़ने से भी परहेज नहीं किया। लेकिन वर्षों तक नेहरू की बेटी को संसद में तीखे विरोध और शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ा। उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ कहा गया और मासूम महिला के तौर पर समझा गया। आगे चलकर 1971 के बांग्लादेश युद्ध के बाद ही उन्हें लीडर का दर्जा मिल सका।

मायावती
इसी तरह मायावती को अपने प्रतिद्वंद्वियों से हिंसक विरोध झेलना पड़ा, जबकि वह यूपी की बहुजन नेता बनकर उभरी थीं। पुरुष प्रधान समाजवादी पार्टी के कुछ लोगों ने उन पर हमले की कोशिश की, जिसे 1995 के लखनऊ गेस्ट हाउस कांड के तौर पर जाना जाता है।

ममता बनर्जी
ममता बनर्जी बंगाल की राजनीति में एक बुलंद आवाज रही हैं। अपने शुरुआती दिनों से वह सड़क पर आंदोलन करती आ रही हैं। उन्हें न केवल हिंसा का सामना करना पड़ा बल्कि कुलीन वामपंथियों के ‘भद्रलोक कॉमरेड’ ने उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया। पिछले बंगाल चुनाव में ममता को ‘दीदी ओ दीदी’ कहकर टारगेट किया गया।

इसी तरह, धारदार हिंदी और अंग्रेजी बोलने वाली स्मृति ईरानी पर कांग्रेस के संजय निरुपम ने अपमानजनक टिप्पणी की थी। स्वर्गीय सुषमा स्वराज एक ओजस्वी वक्ता और प्रभावशाली नेता थीं लेकिन वह सार्वजनिक रूप से हमेशा संकोची और पारंपरिक भाव में ही पेश आती थीं। तीन बार दिल्ली की सीएम रहीं शीला दीक्षित को मां की तरह देखा जाता था और ऐसे में उन्हें चुनौती नहीं समझा जाता था। वसुंधरा राजे ने अपनी आधुनिक लाइफस्टाइल कभी नहीं छिपाई लेकिन राजस्थान बीजेपी में उनके लिए सब कुछ आसान नहीं रहा।

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